तेरे बग़ैर
तेरे बग़ैर
तेरे बग़ैर जिंदगी अधूरी ही रह गई।
चाहे क़रीब आऊँ पर,दूरी ही रह गई।।
मज़हब का भेद था कभी,तो ज़ात-पाँत का।
कभी सरहदे मुल्क़ की,मजबूरी ही रह गई।।
तेरे बग़ैर............।।
बाँधता बंधन में है,क्यूँ प्रीति को समाज?
बेलौस महके प्रीति जो,कस्तूरी ही रह गई।।
तेरे बग़ैर.............।।
होती नहीं बयाँ यहाँ,इस प्रीति की दशा।
मिली नहीं तो प्रीति बस,मयूरी ही रह गई।।
तेरे बग़ैर................।।
बढ़ता रहा तमाम ही,बातों का सिल-सिला।
पर हो सकी न बात,जो जरूरी ही रह गई।।
तेरे बग़ैर.................।
चेहरे कई लगे हुए हैं,एक ही पे यार!
कैसे कहें कि कालिमा,सिंदूरी ही रह गई??
तेरे बग़ैर.................।।
सियासत की दावँ-पेंच में,फँसना कभी नहीं।
सियासत की हर अदा अब,छूरी ही रह गई।।
तेरे बग़ैर................।।
©डॉ. हरि नाथ मिश्र
९९१९४४६३७२
Gunjan Kamal
20-Nov-2023 05:27 PM
👏🏻👌
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Shashank मणि Yadava 'सनम'
20-Nov-2023 07:57 AM
बेहतरीन और खूबसूरत अभिव्यक्ति
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Reena yadav
19-Nov-2023 03:39 PM
👍👍
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